बुद्ध Ke Vichar जानिए हिन्दी में:
15 बुद्ध Ke Vichar जो आपका जीवन बदलदेंगे!
.विज्ञान से भी कठिन काम बुद्ध के विचारो ने किया ने किया।
क्योंकि विज्ञान तो कहता है, वस्तुओं के प्रति
निरपेक्ष भाव रखना। वस्तुओं के प्रति निरपेक्ष भाव रखना तो बहुत सरल है,
लेकिन स्वयं के प्रति निरपेक्ष भाव रखना बहुत कठिन है। बुद्ध ने वही कहा।
![]() |
गौतम बुद्ध के अनोखे विचार(Specific thoughts of Goutam Budhdha) |
विज्ञान तो बहिर्मुखी है, बुद्ध का विज्ञान अंतर्मुखी है।
धर्म का अर्थ होता है, अंतर्मुखी विज्ञान।
बुद्ध ने कहा, जैसे दूसरे को देखते हो बिना किसी धारणा के,
ऐसे ही अपने को भी देखना बिना किसी धारणा के।
यह जरा कठिन बात है। करीब-करीब असंभव जैसी।
क्योंकि हम अपने को तो बिना धारणा के देख ही नहीं पाते।
हम तो सब अपनी-अपनी मूर्तियां बनाए बैठे हैं।
हम सबने तो मान रखा है कि हम क्या हैं, कैसे हैं, कौन हैं।
पता कुछ भी नहीं है, मान सब रखा है।
इसीलिए रोज दुख उठाते हैं। क्योंकि कोई हमें गाली दे देता है तो हमें कष्ट हो जाता है।
क्योंकि हमने तो मान रखा था कि लोग हमारी पूजा करें और लोग गाली दे रहे हैं।
कोई पत्थर फेंक देता है तो हम क्रोधित हो जाते हैं,
क्योंकि हमने तो मान रखा था कि लोग फूलमालाएं चढ़ाएंगे,
लोग पत्थर फेंक रहे हैं। हमारी धारणाएं हैं अपनी।
हमने मन में अपनी एक स्वर्ण-प्र्रतिमा बना रखी है। कल्पनाओं की, सपनों की, इंद्रधनुषी।
बुद्ध कहते हैं, ये प्रतिमाएं भी छोड़ो। नहीं तो तुम आत्म-साक्षात्कार न कर सकोगे।
तुम कौन हो, यह धारणा छोड़ो। हिंदू कि मुसलमान कि ईसाई कि जैन।
तुम कौन हो, ब्राह्मण कि शूद्र कि क्षत्रिय?
तुम कौन हो, साधु कि असाधु?
ये सब धारणाएं छोड़ो।
तुम निर्धारणा होकर भीतर उतरो।
अभी तुम्हें कुछ भी पता नहीं है कि तुम कौन हो।
और ये सब धारणाएं बहुत छोटी हैं।
असाधु की धारणा तो व्यर्थ है ही, साधु की धारणा भी व्यर्थ है।
क्योंकि जिसे तुम भीतर विराजमान पाओगे, वह स्वयं परमात्मा है। ये तुम कहां की छोटी-छोटी धारणाएं लेकर चले हो!
इन छोटी-छोटी धारणाओं के कारण वह विराट नहीं दिख पाता।
आंखें इतनी छोटी हैं, विराट समाए कहां?
तुमने सीमाएं इतनी छोटी बना ली हैं, बड़ा उतरे कैसे?
तो तुम अपने भीतर भी टटोलते हो तो बस धारणाओं में ही उलझे रहते हो।
बुद्ध ने कहा, भीतर भी ऐसे जाओ
जैसे तुम्हें कुछ भी पता नहीं है। शांत, मौन,
अपने अज्ञान को धारण किए भीतर जाओ।
तब वही दिखायी पड़ेगा, जो है। और जो दिखायी पड़ेगा
वही आंखें खोल देगा।
बुद्ध के 151 ज्ञान की बाते click here
ध्यानी आंख बंद करके ध्यान करने बैठता है, लेकिन जब
ध्यान हो जाता है तो आंख ऐसी खुलती है कि फिर कभी बंद ही नहीं होती।
फिर सदा के लिए खुली रह जाती है।
जिनको तुमने अपना विचार मान रखा है, कभी खयाल किया, वे क्या हैं?
मैं हिंदू, मुसलमान, कि ब्राह्मण, कि शूद्र,
कि अच्छा, कि बुरा, कि ऐसा, कि वैसा,
ये तुमने जो मान रखे हैं विचार, ये तुम्हारे हैं?
ये सब उधार हैं। मन तो एक चौराहा है,
जिस पर विचार के यात्री गुजरते रहते हैं।
तुम्हारा इसमें कुछ भी नहीं है।
मैं एक घर में मेहमान था। दो बच्चे
सीढ़ियों पर बैठकर बड़ा झगड़ा कर रहे थे। तो मैंने पूछा, मामला क्या है?
जब मारपीट पर नौबत आ गयी तो मैं उठा और बाहर गया, मैंने कहा, रुको, बात क्या है?
अभी तो भले-चंगे बैठे खेल रहे थे। उन्होंने कहा कि इसने मेरी कार ले ली। मैंने कहा, कहां की कार?
तो उन्होंने कहा, आप समझे नहीं, आपको खेल का पता ही नहीं है।
मैंने कहा कि खेल मुझे समझाओ। तो उन्होंने कहा, बात यह है
कि रास्ते से जो कारें गुजरती हैं, जो पहले देख ले वह उसकी।
अभी एक काली कार गुजरी, वह मैंने पहले देखी और यह कहता है कि मेरी!
इससे झगड़ा हो गया है।
अब सड़क से कारें गुजर रही हैं
और दो बच्चे लड़ रहे हैं कि किसकी और बंटवारा कर रहे हैं। कार वालों को पता ही नहीं है!
कि यहां मुकदमे की नौबत आ गयी, मारपीट की हालत हुई जा रही है।
विचार भी ऐसे ही हैं।
तुम्हारे मन के रास्ते से गुजरते हैं इसलिए तुम्हारे हैं, ऐसा मत मान लेना।
तुम्हारा कौन सा विचार है?
जैन-घर में पैदा हो गए, मां-बाप ने कहा तुम जैन हो--एक कार गुजरी।
तुमने पकड़ी, कि मेरी।
मुसलमान-घर में रख दिए गए होते तो मुसलमान हो जाते।
हिंदू-घर में रख दिए गए होते तो हिंदू हो जाते।
संयोग की बात थी कि तुम रास्ते के किनारे खड़े थे और कार गुजरी।
यह संयोग था कि तुम जैन-घर में पैदा हुए कि हिंदू-घर में पैदा हुए।
यह संयोगमात्र है, इससे न तुम हिंदू होते हो, न जैन होते हो। मगर हो गए।
तुमने पकड़ ली बात।
किसी ने समझा दिया ब्राह्मण हो, तिलक-टीका लगा दिया,
जनेऊ पहना दिया।
कैसे-कैसे बुद्धू बनाने के रास्ते हैं। और सरलता से तुम बुद्धू बन गए।
और तुमने मान लिया कि बस मैं ब्राह्मण हूं। और तुम शूद्र को
हिकारत की नजर से देखने लगे। और अपने पीछे तुमने अकड़ पाल ली।
और फिर ऐसा ही तुमने गीता पढ़ी, और कुरान पढ़ी और बाइबिल पढ़ी और विचारों की
श्रृंखला तुम्हारे भीतर चलने लगी, तैरने लगी, रास्ते पर ट्रैफिक बढ़ता चला गया
और तुम सारे ट्रैफिक के मालिक हो गए।
तुम्हारा इसमें क्या है? तुम्हारा इसमें कोई भी विचार नहीं है।
और फिर तुमने यह भी देखा, विचार कितने जल्दी बदल जाते हैं।
विचार बड़े अवसरवादी हैं, विचार बड़े राजनीतिज्ञ हैं।
पार्टी बदलने में देर नहीं लगती।
जब जैसा मौका हो।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने घोड़े को बांधकर
एक दुकान पर सामान खरीदने गया है। जब वह लौटकर आया
तो किसी ने घोड़े पर
लाल पेंट कर दिया। घोड़े पर!
तो बड़ा नाराज हुआ कि यह कौन आदमी है, किसने शरारत की?
तो किसी ने कहा, यह सामने जो शराबघर है, उसमें से एक आदमी आया और उसने इसको पोत दिया।
कोई पीए होगा।
तो मुल्ला बड़े क्रोध में भीतर गया, और उसने कहा कि किस नालायक ने
मेरे घोड़े पर लाल रंग पोता है?
हड्डी-हड्डी निकालकर रख दूंगा, कौन है, खड़ा हो जाए!
जब आदमी खड़ा हुआ तो बड़ा घबड़ाया। कोई साढ़े छह फीट लंबे
एक सरदार जी खड़े हो गए!
मुल्ला थोड़ा सहमा।
उसने कहा यह हड्डी वगैरह तो निकालना दूर है, अपनी हड्डियां बच जाएं तो बहुत है।
उसने, सरदार ने कहा, बोलो, क्या विचार है? क्या कह रहे थे?
किसलिए आए हो? मुल्ला ने कहा, अरे सरदार जी!
मैं यह कहने आया हूं कि घोड़े पर पहली कोट तो सूख गयी, दूसरी कोट कब करोगे?
बड़ी कृपा की घोड़ा रंग दिया, मगर पहली कोट बिलकुल सूख गयी है।
ऐसे बदल जाते हैं विचार।
विचार बड़े अवसरवादी हैं।
विचारों का बहुत भरोसा मत करना, मन राजनीतिज्ञ है।
और जो मन में पड़ा रहा, वह राजनीति में पड़ा रहता है।
इसलिए मैं कहता हूं, धार्मिक आदमी राजनीतिज्ञ नहीं हो सकता।
क्योंकि धार्मिक होने का अर्थ है, मन के पार गया।
मन के पीछे जो चैतन्य है, उसमें विराजमान हुआ। विचारों की इस भीड़ से हटो।
लेकिन जब तक तुम पकड़े रहोगे, कैसे हटोगे?
विचारों की भीड़ ने ही तुम्हें बेईमान बनाया है, पाखंडी बनाया है, अवसरवादी बनाया है।
मन रोग है।
इससे अपने हाथ धो लो।
बे-मन हो जाओ।
समाधि का इतना ही अर्थ है, ध्यान का इतना ही अर्थ है
कि किसी तरह मन से तुम्हारा तादात्म्य छूट जाए।
और तुम रोज देखते हो कि यह मन तुम्हें कैसे-कैसे धोखे दिए जाता है
और इस मन के द्वारा तुम दूसरों को धोखा दे रहे हो। और यह मन तुमको धोखा दे रहा है।
तुम अपने मन को जांचो। तुम बड़ी राजनीति मन में पाओगे।
तुम चकित होओगे देखकर
कि तुम्हारा मन कितना अवसरवादी है।
जब जो तुम्हारे अनुकूल पड़ जाता है, उसी को तुम स्वीकार कर लेते हो।
जब जिस चीज से जिस तरह शोषण हो सके, तुम वैसा ही शोषण कर लेते हो।
जब जैसा स्वांग रचना पड़े, वैसा ही स्वांग रच लेते हो।
अगर ऐसा ही चलता रहा यह स्वांग रचने का खेल
तो आत्मबोध कभी भी न हो सकेगा। कितने तो स्वांग तुम रच चुके।
कभी जंगली जानवर थे, कभी वृक्ष थे, कभी पशु-पक्षी थे;
कभी कुछ, कभी कुछ; कभी स्त्री, कभी पुरुष; कितने स्वांग तुम रच चुके।
अनंत-अनंत यात्रापथ पर।
कितने विचारों के चक्कर में तुमने कितने स्वांग रचे।
कितनी योनियों में तुम उतरे। और अभी भी चक्कर जारी है।
बुद्ध कहते हैं, जो मन से मुक्त हो गया
वह आवागमन से मुक्त हो गया।
क्योंकि मन ही तुम्हारे आवागमन को चलाता है।
मन चलता है और तुम्हें चलाता है।
मन का चलना रुक जाए तो तुम्हारा चलना भी रुक जाए। इस यात्रा
का जो पहला कदम है, वह है मन के साथ तादात्म्य तोड़ लेना।
मैं मन नहीं हूं, तो फिर मन के विचारों से क्या संबंध?
तो न तो ईश्वर के संबंध में कोई विचार लेकर चलना, न आत्मा के संबंध में कोई
विचार लेकर चलना, न शुभ-अशुभ के संबंध में कोई विचार लेकर चलना।
विचार को पकड़कर चलने वाला निर्विचार तक कभी नहीं पहुंच सकेगा। विचार को छोड़ना है
और निर्विचार में थिर होना है।
यह महाक्रांति बुद्ध संसार में लाए
यदि आपको यह जानकारी अच्छा लगा ही तो या कोई जरूरत हे तो कमेंट में बताया ,🥰